गुरप्रीत सिंह तब सिर्फ 16 साल के थे, जब उन्होंने अपने माता-पिता, दो भाइयों, चाची और भतीजे को भीड़ द्वारा जिंदा जलाते हुए देखा था। तारीख की 2 नवंबर, 1984। गुरप्रीत के परिवार के छह सदस्य गुड़गांव और पटौदी के उन लोगों में से एक थे जिन्हें मार दिया गया। ऐसे ही परिवारों के लिए जस्टिस टी.पी. नारंग कमीशन ने मुआवजे के तौर पर 12.07 करोड़ रुपए की सिफारिश की है।
उस दिन जब भीड़ गुड़गांव के बादशाहपुर पहुंची, गुरप्रीत के पड़ाेसियों ने उसे अपने घर में छिपा दिया। उसने एक खिड़की से सबकुछ होते हुए देखा। कम से कम ‘एक हजार’ लोगों की भीड़ ने उसके परिवार के घर के सामने स्थित गुरुद्वारे को आग लगा दी, उसके बाद गुरप्रीत के परिवार की ओर रुख किया। गुरप्रीत बताते हैं, ”वे उनसे बाहर निकलने को कहने लगे, उन्हें इस बात का भरोसा दिलाने लगे कि कोई नुकसान नहीं होगा। मेरा बढ़ा भाई नीचे गया और जैसे ही वह नीचे पहुंचा, उन्होंने उसे घेर लिया और जिंदा जला दिया।” उसके दूसरे भाई को भी नीचे बुलाया गया था और जब उसने भागने की कोशिश की तो भीड़ ने उसे पकड़ा, पीटा और जिंदा जला दिया। कुछ हमलावरों ने उसकी उंगलियां भी काट दी थीं। गुरप्रीत के मुताबिक, ”उसके बाद उन्होंने हमारे घर को आग लगा दी, जिससे सबको बाहर आना पड़ा और फिर उन्होंने उन्हें जिंदा जला दिया।
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तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए 1984 के सिख दंगों में बच निकले अन्य लोग भी हिंसा, लूट, बलात्कार और हत्या की ऐसी ही दिल दहला देने वाली कहानियां सुनाते हैं। दंगों ने पूरे देश में हिंसा और मौत का तांडव कराया। गुड़गांव में 47 और पटौदी में 17 लोग मारे गए। इसके अलावा जीवित बचे लोगों का आरोप है कि पटौदी में 21 व्यापारिक संपत्तियों (स्टोर और फैक्ट्री) को आग लगा दी गई। पटौदी के 35 सिख परिवार दंगे से प्रभावित हुए। गुड़गांव के 300 घर जला दिए गए। दंगों के सर्वाइवर्स कहते हैं कि जब राहत और देखभाल के लिए उन्हें रिफ्यूजी कैंप में ले जाया गया, तो भी डर हावी रहा। दंगों के वक्त 42 साल के रहे सुरिंदर सिंह कहते हैं, ”वे हमें कैम्स ले गए और छोड़ दिया। वहां ना तो खाने की कोई व्यवस्था थी, ना पानी, ना शौचालय की। हम अपना खाना खुद बनाते थे और अपना सामान खुद खरीदते थे।”
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वे परिवार जिन्होंने अपने घर को सही सलामत छोड़कर रिफ्यूजी कैम्प की शरण ली, आरोप लगाते हैं कि लौटने पर उन्हें घर में तोड़फोड़ की गई मिली। उनका फर्नीचर, ज्वेलरी, बर्तन, चादर जैसे जरूरी सामान भी चोरी जा चुके थे। वह ये भी आरोप लगाते हैं कि कई मामलों में अधिकारियों ने मौतों को मानने से इनकार कर दिया और FIR दर्ज नहीं की।
कई परिवार एक ही आरोप लगाते हैं, ”47 और 17 तो सिर्फ अाधिकारिक आंकड़े हैं, कई ऐसे हैं जिनकी मौत मानी ही नहीं गई। 1984 में पटौदी गांव में 35 सिख परिवार रहते थे, आज वहां सिर्फ 10 घर हैं। गुरजीत सिंह, जो कि दंगों के दौरान अपने पड़ोसी के घर में छिपे थे, उस वक्त किए गए अत्याचारों को याद करते हैं। वह कहते हैं, ”लोगों को मरने तक तड़पाया गया। मौत जल्दी नहीं आई। मैंने सुना कि महिलाओं को नंगा कर बलात्कार किया गया, जिसके बाद दंगाइयों ने उन्हें मुक्ति दे दी और जिंदा जला दिया।
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1984 दंगों का प्रभाव हिंसा खत्म होने के बाद भी लम्बे समय पर महसूस किया जाता रहा। जीवित बचे लोग अपने बच्चों के भविष्य पर पड़े असर की बात करते हैं, जिनमें से कई इसलिए नहीं पढ़ पाए क्योंकि या तो उनके माता-पिता को मार दिया गया या लूट लिया गया। सर्वाइवर्स को अभी भी डर महसूस होता है, जब भी वे कहीं सांप्रदायिक तनाव की बात सुनते हैं। गुड़गांव के एक निवासी ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया, ”हम अपनी दुकान बंद करते हैं और घर पर रहते हैं। हमने पहले ही बहुत कुछ देख लिया है। हम सुरक्षित रह पाएंगे।”
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गुड़गांव और पटौदी के सिख परिवार कहते हैं कि 1984 दंगों के अत्याचार की तस्वीरें अभी तक उनके जेहन में ताजा हैं, मगर वे उम्मीद नहीं करते कि ज्यादातर दंगाई कभी पकड़े जाएंगे और उन्हें सजा होगी। उन्होंने जो खोया है, वे उसके मुआवजे की मांग करते हं। उन्हें लगता है कि कई सरकारों और अदालतों ने उन्हें जो आॅफर किया है, वह ‘अपर्याप्त’ है। एक सर्वाइवर ने कहा, ”हम वही मुआवजा चाहते हैं जिसके हम हकदार हैं। एक लोकतांत्रिक देश में, हम अभी भी लोकतंत्र का इंतजार कर रहे हैं।
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