Thursday, June 30, 2016

संगीत और नृत्य में योग का संयोग

अंतराष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर संगीत नाटक अकादमी ने योग पर केंद्रित एक उत्सव ‘योग पर्व’ मेघदूत सभागार में पिछले दिनों अयोजित किया। इस समारोह में चित्र प्रदर्शनी, कार्यशाला, वृत्तचित्र से लेकर योग से प्रेरित युद्ध कलाएं और सांगीतिक प्रदर्शन तक शामिल थे।
योग-पर्व का उद्घाटन और समापन दोनों ही प्रतिभा प्रसाद ने किया। उद्घाटन संध्या पर उन्होंने निष्पादन कलाओं में योग के महत्त्व पर प्रकाश डाला और समापन संध्या के संभाषण में उन्होंने तीनों ही दिन प्रस्तुत कार्यक्रमों के वेद से जुड़ाव को रेखांकित किया। अंत में अपने दो शिष्यों द्वारा योग के संदर्भ में भरतनाट्यम के संक्षिप्त प्रदर्शन से कार्यक्रम का अंत किया।

पहले दिन प्रतिष्ठा शर्मा ने नृत्य और योग के जुड़ाव पर स्वव्याख्या प्रदर्शन किया और अगले दिन डिंपल कौर ने नृत्य चिकित्सा को योग के साथ जोड़ा। योग के संदर्भ में युद्ध परक कलाओं का पहली शाम प्रतिनिधित्व किया मणिपुर के थांग ता और ढोल चोलम ने। प्रदीप सिंह और साथियों का थागता प्रदर्शन और ढोल बजाते हुए आकाश भ्रामरी लेना शारीरिक संतुलन का प्रतीक था। इसी तरह का संतुलन दूसरे दिन असम के पुराना कमलाबाड़ी सत्र के माटी अखाड़ा योद्धाओं में और तीसरे दिन मयूरभंज छऊ के युद्धपरक नृत्य में देखा जा सकता था। बारीपद से आए युवा नर्तक लोक नाथ दास के शिव तांडव में उनका एक पैर पर संतुलन साधना तो प्रभावी था लेकिन शिव के रौद्र रूप दर्शाने के लिए उन्होंने जिस प्रसंग का आश्रय लिया वह विष्णु के नृसिंहावतार की याद दिलाता था। इसकी जगह शिव के रौद्र तांडव के लिए दक्ष यज्ञ विध्वंस अधिक उपयुक्त होता।

शास्त्रीय संगीत तो अपने आप में ही नादयोग है। योगपर्व ने संगीत को योग के ध्यान और मनन पक्ष से जोड़ा। इस संदर्भ में उस्ताद वासिफुद्दीन डागर का ध्रुपद गायन सर्वथा समीचीन था। सरस्वती राजगोपालन द्वारा परिकल्पित और तीन अन्य उत्कृष्ट कलाकारों के साथ मिल कर प्रस्तुत ‘मेडिटेटिव म्यूजिक एनसेंबल’ से अंतिम दिन समारोह संपन्न हुआ। इस प्रस्तुति में स्वयं सरस्वती राजगोपालन कर्नाटक वीणा पर थीं, सईद जफर खां सितार पर, कैलाश शर्मा बांसुरी पर और दानिश असलम खा सरोद पर थे।

कर्नाटक शैली का राग किरवानी, जो हिंदुस्तानी शास्त्रीय शैली में भी उतना ही लोकप्रिय है, इस प्रस्तुति के लिए चुना गया था। वीणा पर कर्नाटक शैली के रागम-तानुम और शेष वाद्यों पर हिंदुस्तानी संगीत के आलाप-जोड़ के माध्यम से इस राग का मननशील ही नहीं मनोरम माहौल बना। बारी-बारी से वीणा, बांसुरी, सरोद और सितार की सुरीली आलाप मंद्र और मध्य सप्तक से होती हुई तार सप्तक तक पहुंची जिसमें इत्मीनान से क्रमश: सबने अपना सुरीला योगदान दिया। आलाप के वापस षड्ज पर लौटने के बाद तानुम और जोड़ में लय कायम हुई। सरस्वती राजगोपालन के इस ‘मेडिटेटिव एनसेंबल’ में कोई भी ताल-वाद्य नहीं था। यह प्रशंसनीय बात थी पर इतने मननशील संगीत में वीणा के अवांछित रूप से तेज आवाज ने अक्सर ध्यान में व्यवधान डाला। तथापि इस सांगीतिक प्रस्तुति को भरपूर सराहना मिली। कल्पनाशीलता से संजोए बांसुरी पर शंखनाद, सभी वाद्यों पर समवेत वैदिक मंत्रोच्चार और शांति-मंत्र ने अंतिम तिहाई का काम किया।


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