दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) में हर साल बढ़ रहे घाटे से दिल्ली सरकार व डीटीसी परेशान है। एक तरफ हर साल जारी डीटीसी के आंकड़ों में हजारों करोड़ का घाटा तो दूसरी तरफ इससे उबराने की चिंता है। 2014-15 के सलाना रिपोर्ट में डीटीसी के कुल घाटे 3991 करोड़ रुपए के कारणों को नीचे रेखाकिंत किया गया है। जानकारों के मुताबिक डीटीसी में बसों की कमी, 50 साल से ऊपर के ज्यादातर कार्यबल, वेतन और ब्याज पर ज्यादातर खर्च, हर साल हजारों लोगों का रिटायरमेंट, सालों से उचित किराया न बढ़ना, बसों की आॅपरेशनल लागत सहित राष्ट्रीय राजधानी में सड़क परिवहन के तमाम साधनों की समग्र व्यवस्था नहीं होना इसके बड़े कारणों में से है। तत्कालीन दिल्ली सरकार में भी डीटीसी में निवेश को लेकर दो धड़ों में बंटा है। जिससे पिछले 18 महीनों से बस आने पर दर्जन भर से अधिक बार सरकार में तैयारियां हुई और अब तक बस आने का मामला ठंडे बस्ते में पड़ा है। डीटीसी में बसों की कमी के चलते हालत यह है कि एक बस पर आठ आदमी का अनुपात है। इसके साथ ही कई रूटों पर बसों की भारी कमी है। एक डिपो प्रबंधक के मुताबिक डीटीसी को 1998-99 में भी अच्छी स्थिति में नहीं थी तब डीटीसी के पास करीब 600 बसें थीं और इसको चलाना मुश्किल हो रहा था। लेकिन तब के तत्कालीन परिवहन मंत्री राजेंद्र गुप्ता एक दिन मेरे डिपो आए और बैठ गए।
उनसे बातचीत होने लगी तो उन्होंने डीटीसी को लेकर अपनी गहरी चिंता जाहिर की और कहा कि अगर डीटीसी में अभी भी दो सांसे बची होगी तो भी इसको जिंदा करेंगे। तब पूरा डीटीसी महकमा इस भागीरथ काम में लग गया था। उसके बाद एक दौर ऐसा आया कि चारों तरफ डीटीसी की धूम मच गई। दिल्ली के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के लोगों का भरोसा डीटीसी ने जीता था। दूसरे प्रदेश की सरकारें जहां अपने परिवहन को बेहतर करने में लगी हैं और बिना ब्याज के पैसे देती हैं। वहीं डीटीसी को 18 फीसद ब्याज पर पैसे मिलते हैं। इसका डीटीसी के घाटे में बड़ी वजह है।
एक जानकार के मुताबिक दिल्ली में लो फ्लोर बसों का चलना गैर व्यवहारिक है, इसकी जगह सेमी लो फ्लोर बसें चलानी चाहिए। उनका कहना है कि दिल्ली में बसें 40 किलोमीटर से ज्यादा की रफ्तार में नहीं चलती, जबकि जापान की बिल्कुल समतल सड़कों की तर्ज पर चलने वाली हाईस्पीड लो फ्लोर बसें दिल्ली में चलती हैं। डीटीसी बसों में सीएनजी की अधिक खपत है। डीटीसी की एक बड़ी रकम सीएनजी भरने में खर्च होती है। सेमी लो फ्लोर बसे चलाने से इसकी खपत में कटौती की जा सकती है। आंकड़े के मुताबिक, लो फ्लोर बसें एक किलो सीएनजी में ढ़ाई किलोमीटर चलती है जबकि सेमी लो फ्लोर बसें एक किलो में चार किलोमीटर की दूरी तय करती है। पिछले 8-9 सालों में सीएनजी के दाम 250 फीसद बढ़े हैं। जानकारों का मानना है कि अगर सेमी लो फ्लोर बसें चलती तो 2014-15 के आंकड़े में वर्किंग घाटा 1019 करोड़ रुपए के बजाय 500 करोड़ रुपए के करीब होता। लो फ्लोर बसें पूरी तरह इलेक्ट्रानिक होने और इनकी ऊंचाई कम होने से उबड़-खाबड़ सड़कों पर इनमें टूट-फूट होती रहती है। इसकी मरम्मत पर डीटीसी का काफी पैसा खर्च होता है। वहीं रेवन्यू के हिसाब से एनसीआर के 17 रूटों पर अभी करीब एक हजार बसों की जरूरत है, लेकिन 192 बसें ही चलती हैं। इसके साथ ही सालों से बंद पड़ी अंतरराज्यीय बसों का चालू करने की जरूरत है।
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