नई दिल्ली
सूरत के बहुमंजिला कोचिंग सेंटर में भयानक आगजनी की घटना में 23 लोगों की मौत के बाद दिल्ली में भी कमर्शल और रिहायशी इमारतों में फायर सेफ्टी का मुद्दा एक बार फिर गरमा गया है। इस बीच दिल्ली सरकार के चीफ सेक्रेट्री ने भी ऐहतियातन दिल्ली में चल रहे कोचिंग सेंटरों की इमारतों की फायर सेफ्टी के लिहाज से जांच करने के आदेश दिए हैं। फायर डिपार्टमेंट के अफसरों का कहना है कि अगले एक-दो दिन में वे ऐसे तमाम इलाकों की लिस्ट बनाकर वहां टीमों को जांच के लिए भेजेंगे और उसके बाद रिपोर्ट सरकार को सौंपेंगे। दमकल विभाग के अधिकारियों और फायर सेफ्टी से जुड़े जानकारों का मानना है कि दिल्ली में फायर सेफ्टी से जुड़ा खतरा एक अलग ही लेवल पर पहुंच चुका है।
दमकल विभाग के एक पूर्व डायरेक्टर के मुताबिक, फायर सेफ्टी के मामले में 80 प्रतिशत सेफ्टी स्ट्रक्चरल होती है, यानी आग कितनी जानलेवा साबित हो सकती है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि जिस इमारत में आग लगी है, उस इमारत का स्ट्रक्चर कैसा है और वहां फायर सेफ्टी के इंतजाम कैसे हैं?
पूर्व डायरेक्टर का कहना है कि जगह-जगह फायर एक्सटिंविशर लगा देने से फायर सेफ्टी सुनिश्चित नहीं हो जाती। इसके लिए स्ट्रक्चरल लाइफ सेफ्टी सबसे अहम है और दिल्ली की 80 प्रतिशत से ज्यादा इमारतें इस पैमाने पर खरी नहीं उतरती। इसके अलावा इमारत की सीढ़ियों का हिस्सा और उसमें फायर चेक डोर, इमारत का कंपार्टमेंटेशन और स्मोक मैनेजमेंट सिस्टम भी आग को फैलने से रोकने और जानमाल के नुकसान को कम करने में अहम भूमिका निभाता है।
जानकारों के मुताबिक, दिल्ली में ज्यादातर इमारतों पर फायर सेफ्टी कानून लागू ही नहीं होता है। दिल्ली में फायर सेफ्टी लॉ 1983 में आया था, जिसमें 15 मीटर से ऊंची इमारतों के लिए कानून बनाया गया था। बाद में जब इस कानून का नाजायज इस्तेमाल करते हुए लोग फायर सेफ्टी के दायरे में आने से बचने के लिए साढ़े 14 मीटर या 14.9 मीटर ऊंची इमारतें बनाने लगे, तो 2010 में एक और कानून लाया गया, जिसके जरिए 15 मीटर से कम ऊंची इमारतों को भी फायर सेफ्टी के दायरे में लाया गया।
इसके चलते 1983 से पहले बनी इमारतों पर जहां फायर सेफ्टी कानून लागू ही नहीं होता है, वहीं 1983 और 2010 के बाद बनी इमारतों के मामले में भी लोगों ने कानून से बचने के लिए कई रास्ते निकाल लिए। उसी का नतीजा रहा कि पिछले दिनों आग की कई ऐसी घटनाएं सामने आईं। कुछ साल पहले खुद एमसीडी ने एक मामले में अदालत में एफिडेविट दाखिल करके यह जानकारी दी थी कि दिल्ली में 60 लाख से ज्यादा छोटी-बड़ी इमारतें हैं, मगर इनमें से केवल 25 हजार के करीब ही ऐसी इमारतें होंगी, जिनमें स्ट्रक्चर के लिहाज से फायर सेफ्टी के उपाय किए गए हैं और फायर एनओसी मिली हुई है। अनधिकृत कॉलोनियों और लाल डोरा वाले इलाकों पर भी फायर सेफ्टी कानून लागू नहीं होने की वजह से वहां भी धड़ल्ले से जो इमारतें बन रहीं हैं।
सूरत के बहुमंजिला कोचिंग सेंटर में भयानक आगजनी की घटना में 23 लोगों की मौत के बाद दिल्ली में भी कमर्शल और रिहायशी इमारतों में फायर सेफ्टी का मुद्दा एक बार फिर गरमा गया है। इस बीच दिल्ली सरकार के चीफ सेक्रेट्री ने भी ऐहतियातन दिल्ली में चल रहे कोचिंग सेंटरों की इमारतों की फायर सेफ्टी के लिहाज से जांच करने के आदेश दिए हैं। फायर डिपार्टमेंट के अफसरों का कहना है कि अगले एक-दो दिन में वे ऐसे तमाम इलाकों की लिस्ट बनाकर वहां टीमों को जांच के लिए भेजेंगे और उसके बाद रिपोर्ट सरकार को सौंपेंगे। दमकल विभाग के अधिकारियों और फायर सेफ्टी से जुड़े जानकारों का मानना है कि दिल्ली में फायर सेफ्टी से जुड़ा खतरा एक अलग ही लेवल पर पहुंच चुका है।
दमकल विभाग के एक पूर्व डायरेक्टर के मुताबिक, फायर सेफ्टी के मामले में 80 प्रतिशत सेफ्टी स्ट्रक्चरल होती है, यानी आग कितनी जानलेवा साबित हो सकती है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि जिस इमारत में आग लगी है, उस इमारत का स्ट्रक्चर कैसा है और वहां फायर सेफ्टी के इंतजाम कैसे हैं?
पूर्व डायरेक्टर का कहना है कि जगह-जगह फायर एक्सटिंविशर लगा देने से फायर सेफ्टी सुनिश्चित नहीं हो जाती। इसके लिए स्ट्रक्चरल लाइफ सेफ्टी सबसे अहम है और दिल्ली की 80 प्रतिशत से ज्यादा इमारतें इस पैमाने पर खरी नहीं उतरती। इसके अलावा इमारत की सीढ़ियों का हिस्सा और उसमें फायर चेक डोर, इमारत का कंपार्टमेंटेशन और स्मोक मैनेजमेंट सिस्टम भी आग को फैलने से रोकने और जानमाल के नुकसान को कम करने में अहम भूमिका निभाता है।
जानकारों के मुताबिक, दिल्ली में ज्यादातर इमारतों पर फायर सेफ्टी कानून लागू ही नहीं होता है। दिल्ली में फायर सेफ्टी लॉ 1983 में आया था, जिसमें 15 मीटर से ऊंची इमारतों के लिए कानून बनाया गया था। बाद में जब इस कानून का नाजायज इस्तेमाल करते हुए लोग फायर सेफ्टी के दायरे में आने से बचने के लिए साढ़े 14 मीटर या 14.9 मीटर ऊंची इमारतें बनाने लगे, तो 2010 में एक और कानून लाया गया, जिसके जरिए 15 मीटर से कम ऊंची इमारतों को भी फायर सेफ्टी के दायरे में लाया गया।
इसके चलते 1983 से पहले बनी इमारतों पर जहां फायर सेफ्टी कानून लागू ही नहीं होता है, वहीं 1983 और 2010 के बाद बनी इमारतों के मामले में भी लोगों ने कानून से बचने के लिए कई रास्ते निकाल लिए। उसी का नतीजा रहा कि पिछले दिनों आग की कई ऐसी घटनाएं सामने आईं। कुछ साल पहले खुद एमसीडी ने एक मामले में अदालत में एफिडेविट दाखिल करके यह जानकारी दी थी कि दिल्ली में 60 लाख से ज्यादा छोटी-बड़ी इमारतें हैं, मगर इनमें से केवल 25 हजार के करीब ही ऐसी इमारतें होंगी, जिनमें स्ट्रक्चर के लिहाज से फायर सेफ्टी के उपाय किए गए हैं और फायर एनओसी मिली हुई है। अनधिकृत कॉलोनियों और लाल डोरा वाले इलाकों पर भी फायर सेफ्टी कानून लागू नहीं होने की वजह से वहां भी धड़ल्ले से जो इमारतें बन रहीं हैं।
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