Saturday, May 2, 2020

'फिर दिल्‍ली नहीं आऊंगी', लॉकडाउन ने दिया दर्द

पंखुडी यादव/नई दिल्‍ली
वो बड़ी उम्‍मीदें लेकर बिहार के अपने गांव से दिल्‍ली आई थीं। पूर्णियां की रहने वाली आशा देवी के सपनों को दिल्‍ली आते ही पंख लग गए। यहां प्रीत विहार में चाय बेचकर भी वो गांव से चार गुना ज्‍यादा पैसे कमा लेती थीं। मगर लॉकडाउन ने वो सपने धराशायी कर दिए जो 47 साल की आशा ने अपने बच्‍चों के लिए देख रखे थे। उनकी उम्‍मीदों का गुब्‍बारा इस डेढ़ महीने से भी लंबे लॉकडाउन ने तोड़ दिया। पिछले एक महीने से वो अपने परिवार के साथ यमुना स्पोर्ट्स कॉम्‍प्‍लेक्‍स में भिखारियों जैसी जिंदगी गुजार रही हैं।

'अब कभी नहीं आऊंगी दिल्‍ली'
मशहूर शायर अहमद फ़राज़ की गज़ल की एक लाइन है, 'अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें...' आशा देवी के लिए यह लाइन फिट बैठती हैं। वह दिल्‍ली से खफा हैं। बड़ा परिवार है। एक भाई, दो बेटियां, छह बच्‍चे, एक गर्भवती बहन और बहनोई। सब प्रवासी मजदूरों के लिए बने शेल्‍टर में ठहरे हुए हैं। उनकी नाराजगी शब्‍दों में झलकती है। कहती हैं, "एक बार घर पहुंच गई तो कभी दिल्‍ली वापस नहीं आऊंगी। मुझे और पैसों की अब परवाह नहीं है।"

'बस किसी तरह घर लौट जाएं'
दिल्‍ली में आशा देवी जैसे 40 लाख प्रवासी मजदूर हैं जो अपने गांव जाने को बेताब हैं। उनके कभी ना लौटने की कसम एक्‍सपर्ट्स को टेंशन दे रही है कि भाई इस महामारी से जो आर्थिक हालात उपजे हैं, उन्‍हें दूर कैसे किया जाएगा। दिल्‍ली सरकार ने उनके रहने-खाने का इंतजाम कर रखा है मगर ये प्रवासी किसी तरह घर लौट जाना चाहते हैं। जब सरकार ने उनके घर जाने के लिए ट्रांसपोर्ट की व्‍यवस्‍था का ऐलान किया तो जैसे बरसों संदूक में दबाकर रखी कोई खुशी बाहर निकल आई।


मजबूरी ने रोके बहुतों के पांव
जहांगीरपुरी की एक गारमेंट फैक्‍ट्री में काम करने वाले हेमेश कुमार उन प्रवासियों में से हैं जिन्‍होंने पैदल ही बिहार जाना ठीक नहीं समझा। उनकी अपनी मजबूरी भी है। कहते हैं, "हां, मैं जाना चाहता था मगर मेरी दो छोटी-छोटी बेटियां हैं। इसलिए जब मुझे वर्कर्स शेल्‍टर होम लाया गया तो विरोध नहीं किया। लेकिन अगर सरकार हमारे लौटने की व्‍यवस्‍था करा दे तो मैं घर चला जाऊंगा और दिल्‍ली वापस नहीं आऊंगा... निकट भविष्‍य में तो बिलकुल नहीं।" कुमार की माली हालत इतनी खराब है कि फोन रीचार्ज तक के पैसे नहीं हैं। वह रिश्‍तेदारों को इस उम्‍मीद में मिस्‍ड कॉल देते हैं कि वो पलटकर फोन करेंगे।

'परिवार के पास जाने दो'
यूपी से दिल्‍ली आए महेश की भी यही कहानी है। यहां प्‍लम्बिंग का काम करके महीने में 6000 रुपये तक कमा लेते थे। मगर अब कहते हैं, "मुझे फर्क नहीं पड़ता कि मैंने यहां कितना कमाया। मुझे कहीं और भी नौकरी मिल सकती हहै मगर मैं गांव में फंसे अपने परिवार के पास जाना चाहता हूं।" उन्‍होंने बताया कि वह मार्च में अपने घर जाने को निकले थे मगर पुलिस ने रोक लिया और शेल्‍टर होम में ला छोड़ा।"

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'परिवार बुलाता है, कैसे ना जाऊं'
सरकारी शेल्‍टर होम में, हेमेश के बगल में विशाल लेटते हैं। उनके तकिये के नीचे एक तस्‍वीर है जिसमें उनका परिवार है। वो कहते हैं, "मैं दिल्‍ली में दो साल तक अकेले रहा हूं और मुझे डिप्रेशन हो गया है। परिवार मुझे घर बुलाता है मगर मैंने सोचा कि मैं चीजें संभाल लूंगा मगर अब सेहत इतनी बिगड़ गई है कि मैं घर लौटना चाहता हूं।" लौट पाते उससे पहले ही लॉकडाउन हो गया। उनके साथ ही दीपक भी हैं जो बिहार से आए हैं। यहां लाए जाने से पहले अक्षरधाम फ्लाईओवर के नीचे खुले में दिन काट रहे थे।


यहीं रहना भी है कुछ की चाहत
कुछ ऐसे प्रवासी भी हैं जो दिल्‍ली में ही रहना चाहते हैं। नंदन सिंह कहते हैं, "मेरे कॉन्‍ट्रैक्‍टर ने मुझे रहने की जगह दी और तीन टाइम खाना देते हैं। वह सब इंतजाम कर रहे हैं कि मेरे परिवार को परेशानी ना हो तो मैं क्‍यों जाऊं?" एकऔर वर्कर ने कहा कि वह दिल्‍ली में ही रहकर डबल शिफ्ट कर लेंगे ताकि पिछले दो महीनों का नुकसान पूरा हो सके।

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