सिद्धार्थ रॉय, नई दिल्ली
एक वक्त था जब दिल्ली चुनाव के नतीजे उस पार्टी के पक्ष में जाते थे जो पंजाबी, जाट, गुर्जर और वैश्य समाज को साध लेता था। लेकिन पिछले 10 सालों में यह बदला। पहले पूर्वांचली और फिर उत्तराखंडी लोग भी इस लिस्ट में जुड़ गए। दिल्ली के जनसांख्यिकीय पैटर्न में तेजी से बदलाव हो रहा है। राजनीतिक पार्टियां भी उसी हिसाब से अपने आपको बदल रही हैं। उसी हिसाब से टिकट बंटवारे भी किए जाते हैं। लेकिन फिर भी कुछ को लगता है कि उनके समुदाय को पार्टियां उचित जगह नहीं देती। इसमें बंगाली, मलयाली, तमिल भाषी लोग हैं। उनकी बात तब सही लगने लगती है जब पता चलता है कि 1952 से अबतक सिर्फ एक बंगाली और एक केरल वासी को दिल्ली विधानसभा में भेजा गया है।
तेजी से बढ़ी पूर्वांचलियों की संख्या
कहा भी जाता है कि दिल्ली में कोई दिल्ली का नहीं है। यहां आपको बंगाली, मलयाली, तमिल, कश्मीरी, पूर्वांचली सब मिल जाएंगे। मलयालम, तमिल और बंगाली बोलनेवाले लोगों की संख्या में 2001 से 2011 तक खास बदलाव नहीं आया है। वहीं पूर्वांचलियों की दिल्ली में जनसंख्या तेजी से बढ़ी है। बता दें कि दिल्ली में कुल 1.46 लाख वोटर हैं। इसमें से लगभग 40 लाख वोटर पूर्वांचली हैं। तीनों ही बड़ी पार्टियों में भी पूर्वांचली नेताओं को बड़ी जिम्मेदारियां सौंपी हुई हैं। इसमें मनोज तिवारी (बीजेपी), कीर्ति आजाद (कांग्रेस) और संजय सिंह (आप) शामिल हैं।
बंगाली, मलयालम, तमिल भाषियों की संख्या में खास बदलाव नहीं
बंगाल के लोग 19वीं सदी में दिल्ली शिफ्ट हुए थे। तब दिल्ली को राजधानी बनाया गया था। लेकिन 2011 की जनगणना तक उनकी संख्या इतनी ज्यादा नहीं बढ़ी। दिल्ली में बंगाली बोलनेवाले 2.1 लाख लोग हैं। यह संख्या पंजाबी (8.7 लाख) और उर्दू (8.6 लाख) बोलनेवालों से भी कम है। मलयालम और तमिल बोलनेवाले लोगों की भी ऐसी ही स्थिति है। ब्रिटिश राज में दिल्ली को राजधानी बनाने के बाद वहां से लोग यहां आना शुरू हुए थे। लेकिन अब भी दिल्ली में 2 लाख से ज्यादा वहां के लोग नहीं हैं। वे लोग भी सांस्कृतिक गतिविधियों में जरूर आगे हैं, लेकिन राजनीति में उनका हस्तक्षेप कम ही है।
शायद यही वजह है कि 1952 में पहले विधानसभा चुनाव होने से अबतक सिर्फ एक मलयाली और एक बंगाली विधानसभा पहुंचे हैं। इसमें प्रफुल्ल रंजन चैटर्जी (कांग्रेस, 1952) और मीरा भारद्वाज (कांग्रेस, 1998 और 2003) शामिल हैं।
नाराज हैं लोग
राजनीतिक पार्टियों द्वारा उचित स्थान न दिए जाने पर इन जगहों के लोगों में गुस्सा भी है। केरल क्लब जो दिल्ली में 1939 में बना था उसके अध्यक्ष ओम चारे एनएन पिल्ले कहते हैं कि दिल्ली-एनसीआर में करीब 10 लाख मलयाली लोग हैं। बावजूद इसके राजनीतिक पार्टियां उन्हें उचित स्थान नहीं देती। चितरंजन पार्क में रहनेवाले बंगाली लोगों में भी इसको लेकर नाराजगी रहती है। उनसे जुड़े ईस्ट बंगाल डिस्पलेस्ड पर्सन (EBDP) असोसिएशन के पीके रॉय कहते हैं कि अगर बड़ी पार्टियां हमें जगह नहीं देंगी तो हमें अपने उम्मीदवार उतारने होंगे।
एक वक्त था जब दिल्ली चुनाव के नतीजे उस पार्टी के पक्ष में जाते थे जो पंजाबी, जाट, गुर्जर और वैश्य समाज को साध लेता था। लेकिन पिछले 10 सालों में यह बदला। पहले पूर्वांचली और फिर उत्तराखंडी लोग भी इस लिस्ट में जुड़ गए। दिल्ली के जनसांख्यिकीय पैटर्न में तेजी से बदलाव हो रहा है। राजनीतिक पार्टियां भी उसी हिसाब से अपने आपको बदल रही हैं। उसी हिसाब से टिकट बंटवारे भी किए जाते हैं। लेकिन फिर भी कुछ को लगता है कि उनके समुदाय को पार्टियां उचित जगह नहीं देती। इसमें बंगाली, मलयाली, तमिल भाषी लोग हैं। उनकी बात तब सही लगने लगती है जब पता चलता है कि 1952 से अबतक सिर्फ एक बंगाली और एक केरल वासी को दिल्ली विधानसभा में भेजा गया है।
तेजी से बढ़ी पूर्वांचलियों की संख्या
कहा भी जाता है कि दिल्ली में कोई दिल्ली का नहीं है। यहां आपको बंगाली, मलयाली, तमिल, कश्मीरी, पूर्वांचली सब मिल जाएंगे। मलयालम, तमिल और बंगाली बोलनेवाले लोगों की संख्या में 2001 से 2011 तक खास बदलाव नहीं आया है। वहीं पूर्वांचलियों की दिल्ली में जनसंख्या तेजी से बढ़ी है। बता दें कि दिल्ली में कुल 1.46 लाख वोटर हैं। इसमें से लगभग 40 लाख वोटर पूर्वांचली हैं। तीनों ही बड़ी पार्टियों में भी पूर्वांचली नेताओं को बड़ी जिम्मेदारियां सौंपी हुई हैं। इसमें मनोज तिवारी (बीजेपी), कीर्ति आजाद (कांग्रेस) और संजय सिंह (आप) शामिल हैं।
बंगाली, मलयालम, तमिल भाषियों की संख्या में खास बदलाव नहीं
बंगाल के लोग 19वीं सदी में दिल्ली शिफ्ट हुए थे। तब दिल्ली को राजधानी बनाया गया था। लेकिन 2011 की जनगणना तक उनकी संख्या इतनी ज्यादा नहीं बढ़ी। दिल्ली में बंगाली बोलनेवाले 2.1 लाख लोग हैं। यह संख्या पंजाबी (8.7 लाख) और उर्दू (8.6 लाख) बोलनेवालों से भी कम है। मलयालम और तमिल बोलनेवाले लोगों की भी ऐसी ही स्थिति है। ब्रिटिश राज में दिल्ली को राजधानी बनाने के बाद वहां से लोग यहां आना शुरू हुए थे। लेकिन अब भी दिल्ली में 2 लाख से ज्यादा वहां के लोग नहीं हैं। वे लोग भी सांस्कृतिक गतिविधियों में जरूर आगे हैं, लेकिन राजनीति में उनका हस्तक्षेप कम ही है।
शायद यही वजह है कि 1952 में पहले विधानसभा चुनाव होने से अबतक सिर्फ एक मलयाली और एक बंगाली विधानसभा पहुंचे हैं। इसमें प्रफुल्ल रंजन चैटर्जी (कांग्रेस, 1952) और मीरा भारद्वाज (कांग्रेस, 1998 और 2003) शामिल हैं।
नाराज हैं लोग
राजनीतिक पार्टियों द्वारा उचित स्थान न दिए जाने पर इन जगहों के लोगों में गुस्सा भी है। केरल क्लब जो दिल्ली में 1939 में बना था उसके अध्यक्ष ओम चारे एनएन पिल्ले कहते हैं कि दिल्ली-एनसीआर में करीब 10 लाख मलयाली लोग हैं। बावजूद इसके राजनीतिक पार्टियां उन्हें उचित स्थान नहीं देती। चितरंजन पार्क में रहनेवाले बंगाली लोगों में भी इसको लेकर नाराजगी रहती है। उनसे जुड़े ईस्ट बंगाल डिस्पलेस्ड पर्सन (EBDP) असोसिएशन के पीके रॉय कहते हैं कि अगर बड़ी पार्टियां हमें जगह नहीं देंगी तो हमें अपने उम्मीदवार उतारने होंगे।
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