Sunday, August 26, 2018

जानें, 1847 से लेकर अब तक दिल्ली ने क्या खोया

मणिमुग्धा शर्मा, नई दिल्ली
1857 से लेकर अब तक, यानी 170 सालों में दिल्ली में बहुत कुछ पाया और बहुत कुछ खो दिया है। 1840 में कुतुबमीनार की बालकनी से नीचे आने के लिए आर्कियॉलजिस्ट एक टोकरी में बैठते थे जो रस्सियों पर टिकी होती थी। मीनार के ऊपरी हिस्से की नक्काशी को कॉपी करने के लिए वह अपनी जान जोखिम में डालते थे। वह आर्कियॉलजिस्ट थे सर सैयद अहमद खान। यह वही अहमद खान हैं जिन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना की थी। उन्होंने 1847 में असर-उस-सनादिद नाम की किताब लिखी थी, जिसमें इमारतों की बारीकियों का जिक्र था। 1854 में इस ग्रंथ का रिवाइज्ड एडिशन आया।

पर्शियन उर्दू में लिखी इस किताब में दिल्ली की मशहूर ऐतिहासिक इमारतों का जिक्र है। इसमें लाल किले के बारे में बताया गया है जहां उस समय भी मुगल बादशाह की अदालत लगती थी, जो अनोखी बात है। इसमें फैज अली खान और मिर्जा शाहरुख बेग द्वारा तैयार 130 शिलाओं पर उकेरे गए चित्र मिले हैं। पिछले 170 वर्षों में उर्दू न पढ़ सकने वाले लोग इस इतिहास की इन बातों से दूर रहे।


अब जब यह पाषाणलेखन सामने आया है, इतिहासकार साफवी इसे अंग्रेजी में ट्रांसलेट कर रही हैं। सर सैयद अहमद खान की किताब के मुताबिक 1857 की क्रांति के बाद दिल्ली को खासा नुकसान हुआ था, लेकिन शिला पर छपी आकृतियों के बारे में मिले स्केच देखकर हैरानी होती है कि आज कई इमारतें बची हुई हैं और कई का अस्तित्व खत्म हो चुका है। हमनें उन्हें उसी अंदाज में कैप्टर करने की कोशिश की जैसे सर सैयद अहमद ने किया था। दोनों को देखने पर काफी फर्क मिला।

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मिले लिथोग्राफ्स से तुलना करने पर पता चला कि कई प्राचीन इमारतों का काफी हिस्सा गायब है। हमने पाया कि मौजूदा समय में लाल किले का महज 20 फीसदी हिस्सा बचा रह गया है, बाकि हिस्सा ब्रिटिश हुकूमत का शिकार हो गया। सर सैयद पहले ही कहते थे कि प्राचीन महलों की शान कम होती जा रही है।


राणा साफवी ने कहा, 'मैं लिथोग्राफ्स और आज की तस्वीरों में अंतर देखकर हैरान रह गया। अंग्रेजों ने किले के अंदर की कई इमारतों को तहस-नहस कर दिया, इसमें मोती महल भी शामिल है, जिसे सिर्फ इसलिए गिरा दिया गया क्योंकि अंग्रेजों को लगता था कि वह महल यमुना की ओर से आ रही ठंडी-ठंडी हवा को रोकता था और बैरकों को हवा नहीं पहुंच पाती थी।'

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