Sunday, August 28, 2016

दिल्ली मेरी दिल्ली- बात का बतंगड़

विधानसभा का बीता सत्र दिल्ली के इतिहास में यह शायद पहला सत्र रहा होगा जिसमें मुख्यमंत्री सिर्फ नाम के लिए हाजिर हुए हों। मुख्यमंत्री केजरीवाल ने सारे विभाग अपने मंत्रियों में बांट दिए हैं और मुख्यमंत्री वाले ज्यादातर अधिकार उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को सौंप दिए हैं। विधानसभा की साल में मुश्किल से 20-25 बैठक होती होगी। यही नहीं, सरकार अपनी सुविधा से बैठक का दिन तय करती है, तो ऐसे वक्त में बैठक बुलाई ही क्यों जाती है जब केजरीवाल दिल्ली में नहीं रहते। हालांकि मजबूत विपक्ष न होने के कारण इस बात का ‘बतंगड़’ नहीं बना, लेकिन लोगों के हित और लोकतांत्रिक परंपरा की सबसे ज्यादा दुहाई देने वाली आम आदमी पार्टी के लिए यह बेहद जरूरी है। जो मुख्यमंत्री साल में तीन हफ्ते का वक्त विधानसभा के लिए न निकाल पाए, उसे आम आदमी और उसके हितों से क्या सरोकार होगा, यह बखूबी समझा जा सकता है।

तकदीर के धनी

दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष सतीश उपाध्याय राजनीतिक तकदीर के धनी हैं। जब से उन्हें दिल्ली भाजपा की कमान मिली है, उसके चंद दिनों बाद से ही यह चर्चा चल पड़ी कि भाजपा आलाकमान उनका विकल्प तलाश रहा है। बीते छह महीने से तो आए दिन ये चर्चा रहती है कि दिल्ली भाजपा के नए प्रदेशाध्यक्ष का नाम एक-दो दिन में तय हो रहा है। अपने पत्रकार साथी भी आए दिन किसी न किसी नए संभावित अध्यक्ष का नाम खबरों के जरिए सार्वजनिक कर देते हैं। पर होता वही है ढाक के तीन पात। न तो प्रदेश भाजपा का नया अध्यक्ष आ रहा है और न ही उसे लेकर केंद्र की ओर से कोई संकेत दिया जा रहा है। दिल्ली की राजनीति भी ऐसी है कि जब देखो तब उपाध्याय केजरीवाल सरकार के खिलाफ किसी न किसी आंदोलन की घोषणा कर देते हैं। भाजपा को भी पता है कि जब आंदोलन चल रहा हो तो किसी नए चेहरे को पार्टी की बागडोर सौंपना किसी भी तरह से फायदे का सौदा नहीं है।

यू-टर्न का खमियाजा

केवल पांच कटआॅफ जारी करने का दिल्ली विश्वविद्यालय का फैसला टांय-टांय फिस्स साबित हुआ! कैंपस के गलियारों में यह चर्चा आम रही कि विश्वविद्यालय का यह दाखिला सत्र ‘प्रयोग सत्र’ के रूप में दर्ज रहा। इस चर्चा में तर्क भी है। डीयू में यह पहला मौका है जब एक तरफ पढ़ाई चल रही है तो दूसरी तरफ उसी सत्र के लिए दाखिले हो रहे हैं। शिक्षक भी पूछ रहे हैं कि उनका क्या होगा जो डेढ़ महीने बाद क्लास में पहुंचेंगे। विश्वविद्यालय का पहले के फैसलों पर यू-टर्न लेने का खमियाजा नए छात्रों को भुगतना पड़ेगा जो पढ़ाई शुरू होने के डेढ़ महीने बाद कक्षा में पहुंचेंगे।

बेबसी या मजबूरी

दिल्ली के बाहर पैर फैलाने की कवायद में जुटी आम आदमी पार्टी अपने ही दुर्ग के अंदर दुविधा में घिरी है कि आखिर किस-किस से ‘जंग’ लड़े, अपनों से या गैरों से। प्रचंड बहुमत से दिल्ली की सत्ता में आई आप ने शुरू से ही केंद्र से ‘एलान-ए-जंग’ छेड़ रखी है, लेकिन कुछ अरसे से ‘अपने’ भी उसके गले की हड्डी बने बैठे हैं। चाहे विधायक पंकज पुष्कर हों या पूर्व मंत्री असीम अहमद खान। पंकज पुष्कर तो पार्टी के अंदर रह कर भी खुले आम पार्टी से निष्कासित प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव के साथ खड़े नजर आते हैं, लेकिन पार्टी आलाकमान इस पर चुप्पी साधे बैठा है। उधर खान सीधे मुख्यमंत्री से खतरा होने का आरोप लगाते हैं और उनके खिलाफ बड़ा खुलासा करने की बात कहते हैं, लेकिन पार्टी आलाकमान फिर भी खामोश है। आए दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला करने वाले आप के मुखिया की यह बेबसी है या कोई राजनीतिक मजबूरी, ये तो भगवान ही जाने।

सन्नाटे की वजह

दिल्ली के तीनों निगमों में दस साल से काबिज और देश पर हुकूमत करने वाली पार्टी भाजपा के दफ्तर में पसरे सन्नाटे का कारण यूं ही समझ में नहीं आएगा, इसके लिए आपको प्रदेश कार्यालय जाना पड़ेगा। एक तो प्रदेश अध्यक्ष सतीश उपाध्याय की त्रासदी रही है कि वे जिस दिन से अध्यक्ष बने हैं उसके दूसरे ही दिन से उनके हटने की चर्चा चल पड़ी। दूसरी ओर दिल्ली की राजनीति में भी उनकी पहले जैसी बड़ी हैसियत नहीं रही। इतना ही नहीं, महज तीन विधायकों के बूते विधानसभा में विपक्ष के नेता बने विजेंद्र गुप्ता का राजनीतिक कद उनसे कहीं ज्यादा बड़ा है और वे चाह कर भी उसे कम नहीं कर पा रहे हैं। लोग दिल्ली में केंद्र सरकार के मंत्रियों की हाजिरी लगाएं, केंद्रीय भाजपा दफ्तर जाएं या बेवजह प्रदेश भाजपा दफ्तर में धक्के खाएं। अक्लमंदी तो पहले की दोनों जगहों पर जाने में ही है। ऐसे में दिल्ली भाजपा दफ्तर में सन्नाटा नहीं पसरेगा तो क्या होगा।

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