Wednesday, August 3, 2016

यहां मेहनत का नहीं है कोई मोल!

नई दिल्ली
नई दिल्ली के लाला लाजपत राय मार्ग पर सुबह 8 बजे से ही खूब भीड़ जमा हो जाती है। नेहरू प्लेस एक्सटेंशन फ्लाईओवर के नीचे अपने औजारों के साथ मजदूर कतारबद्ध होकर खड़े दिखते हैं। एक कार आकर रुकती है और मजदूरों की भीड़ उस कार की तरफ दौड़ जाती है और उसके बाद कार वाले से काफी मोलभाव के बाद दो मजदूर कार वाले के साथ चले जाते हैं। बाकी मजदूर फिर से सड़क पर खड़े हो जाते हैं इस इंतजार में कि उन्हें भी कोई काम पर ले जाएगा।

इस भीड़ में कुछ कुशल श्रमिक भी होते हैं तो कुछ गैर-कुशल श्रमिक भी जैसे-पेन्टर्स, बेल्डर्स, कारपेन्टर, मिस्त्री आदि। ये हर सुबह लेबर चौक पर इकट्ठा होते हैं जो 350 रुपए-600 रुपए तक की मजदूरी में काम करने को भी तैयार हो जाते हैं। यहां 16 साल के बच्चे भी हैं और 70 साल के बूढ़े भी। इन्हें काम न मिलने की चिंता इतनी सताती है कि ये किसी भी कीमत पर काम करने को तैयार हो जाते हैं लेकिन इसके बावजूद भी उन्हें काम मिल ही जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है।

पटना के संधू यादव बताते हैं, आम तौर पर एक महीने में 15 दिन भी काम मिल जाना खुशनसीबी की बात है। झांसी के एक कारपेन्टर अपना दर्द बयां करते हुए कहते हैं कि हर रोज उन्हें अपनी जिंदगी एक संघर्ष की तरह लगती है। एक दिन पहले नेहरू प्लेस के एक ऑफिस में दरवाजों की मरम्मत करने का काम मिलने पर वह बहुत खुश था लेकिन जब काम खत्म हुआ तो उसे केवल आधा ही भुगतान किया गया। वह कहते हैं, 'हम कर भी क्या सकते हैं ? हम पुलिस के पास भी नहीं जा सकते हैं।'

लेबर चौक पर सामाजिक सुरक्षा और मजदूरों के अधिकारों की बातें करने वाला कोई नहीं है। दिल्ली के श्रम विभाग के बड़े-बड़े दावों के बावजूद इस लेबर बाजार में लेबर कार्ड शायद ही किसी के पास मौजूद हो, यहां मजदूरों को न लेबर कार्ड से होने वाले फायदों के बारे में किसी को जानकारी है और न ही इस कार्ड से कोई मतलब। श्रम विभाग ने हालांकि पिछले साल दावा किया था कि उसने शहर के सभी प्रवासी मजदूरों का भी पंजीकरण कर लिया है।

जैसे-जैसे दिन ढलता जाता है, यहां मजदूर अपने भाव भी गिराते जाते हैं। जहां सुबह-सुबह काम मिल जाने पर 400 रुपए की मजदूरी मिलती है वहीं दोपहर होने के साथ ही रेट 250 रुपए हो जाता है। दिन छलने के बाद भी लगभग दो-तिहाई मजदूरों को काम नहीं मिलता।

मजदूरों की इस मजबूरी का फायदा ठेकेदार बखूबी उठाते हैं। गोदान नाम का एक मजदूर (जोकि मुंशी प्रेमचंद जी के सामाजिक शोषण पर आधारित उपन्यास का भी नाम है) गुस्से में कहता है, 'वह हमारे खून और पसीने पर अपना पेट भरते हैं, वह हमें बहुत कम मजदूरी देते हैं और एक इंसान की क्षमता से ज्यादा काम कराते हैं।'

हालांकि निराशा के इस माहौल से दूर कुछ लोग अपनी जिंदगी से खुश हैं। 70 साल के सुरेश कुमार जोकि पेशे से पेन्टर हैं उनमें से एक हैं। वह कहते हैं, मैंने सड़क किनारे के मोलभाव वाली मजदूरी से अपनी तीन बेटियों की शादी की, अब मुझे बस केवल अपनी जरूरतें पूरी करनी हैं और अपनी शराब का इंतजाम करना है बस।



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